सिख समुदाय के कुछ लोगों को हिंदी साइन बोर्ड पर कालिख पोतते दिखाती तस्वीरों का एक सेट और एक वीडियो वायरल हो रहा है. सोशल मीडिया यूज़र्स इसे वर्तमान में चल रहे किसान आंदोलन से जोड़कर शेयर कर रहे हैं.
बूम ने पाया कि वायरल तस्वीरें साल 2017 से है जबकि वीडियो 14 सितम्बर 2020 से यूट्यूब पर मौजूद है. वायरल वीडियो और तस्वीरें हिंदी इम्पोज़िशन के ख़िलाफ़ किए गए प्रदर्शनों का हिस्सा हैं ना कि वर्तमान में चल रहे किसान आंदोलन से सम्बंधित हैं.
हिंदी इम्पोज़िशन यानी ग़ैर हिंदी भाषियों पर थोपना. इसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन 2017 में दक्षिण भारत में शुरू हुए थे जब कर्नाटक और तमिलनाडु में कई जगह लोगों ने हिंदी साइन बोर्ड पर कालिख पोत दिया था. प्रदर्शनकारियों का कहना था कि जब उनकी मात्र भाषा हिंदी नहीं है, तो हिंदी को साइन बोर्ड पर सबसे ऊपर या उनकी मात्र भाषा के ऊपर क्यों लिखा गया है. रिपोर्ट यहां और पढ़ें
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फ़ेसबुक पर कृष्णकांत सिंह नाम के यूज़र ने तस्वीरों का एक सेट शेयर करते हुए लिखा कि "रिलायंस जियो के टॉवर तोड़ने के बाद अब अगला काम हिंदी_नही_चलेगी... क्या ये किसान है ? ये समाधान नहीं व्यवधान चाहते हैं..ये शांति नहीं संघर्ष चाहते है...ये विकास नहीं, विनाश चाहते हैं, ये स्वतंत्रता नहीं, स्वछंदता चाहते हैं, ये सड़क नहीं, स्पीड ब्रेकर चाहते हैं। #फर्जी_किसान_आन्दोलन"
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ट्विटर पर श्रीश त्रिपाठी नाम के यूज़र ने वीडियो और तस्वीरों का एक कोलाज शेयर करते हुए कैप्शन में लिखा, "असली चेहरा अब सामने आ रहा है. टॉवर तोड़ने के बाद अब पंजाब में हिंदी नही चलेगी. किसान आन्दोलन बहाना है हिन्दू और हिन्दू विरोध असली मकसद है. ये ही है, किसान आंदोलन की हकीकत? ये खालिस्तानी आंदोलन है, किसानों के भेष में आतंकी, उनके समर्थक है. उनका एजेंडा,अराजकता फैलाना देश को तोड़ना है. ये लोग पंजाबियों के दुश्मन हैं, इन्हें पूरे भारत मे रह रहे पंजाबियों के बारे में चिंता होती तो ऐसा कभी नहीं करते. दोगले बामपंथियों का असर है. यही खालिस्तानियों ने किया था कभी?"
पोस्ट का आर्काइव वर्ज़न यहां देखें. अन्य पोस्ट यहां, और यहां देखें.
तस्वीर के साथ शेयर किये गए पोस्ट यहां और यहां देखें. इस तरह के दावों के साथ फ़ेसबुक पर बड़े पैमाने पर पोस्ट शेयर किये गए हैं.
फ़ैक्ट चेक : रेलवे स्टेशन पर बनी 'मस्जिद' की यह तस्वीर कहां की है?
फ़ैक्ट चेक
बूम ने तस्वीरों को रिवर्स इमेज सर्च पर खोजा तो इन्हीं तस्वीरों के साथ साल 2017 की कई मीडिया रिपोर्ट्स सामने आईं, जिनमें इन तस्वीरों के सेट का इस्तेमाल किया गया था. मीडिया रिपोर्ट्स यहां, यहां और यहां पढ़ें.
हमने पाया कि सोशल मीडिया पर वायरल यह तस्वीरें 2017 में पंजाब में हुए हिंदी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन की हैं. प्रदर्शन के बाद पंजाब सरकार ने पंजाबी भाषा में डेस्टिनेशन को सबसे ऊपर लिखना शुरू किया था.
25 अक्टूबर, 2017 को हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब में कुछ संगठनों द्वारा हिंदी और अंग्रेजी के नीचे साइनबोर्ड पर नंबर तीन पर पंजाबी लिखने का आरोप लगाते हुए विरोध प्रदर्शन किया गया था।
25 अक्टूबर, 2017 को इंडिया टीवी में प्रकाशित एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि कट्टरपंथी सिख समूहों ने 'बठिंडा-फ़रीदकोट राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे साइनबोर्ड पर हिंदी और अंग्रेजी शब्दों को काला करने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान' चलाया था. वे मांग कर रहे थे कि साइनबोर्ड पर पंजाबी को अन्य सभी भाषाओं में वरीयता मिले.
असदुद्दीन ओवैसी को बधाई देते अमित शाह की यह तस्वीर एडिटेड है
वायरल वीडियो
वायरल क्लिप के स्क्रीनशॉट को रिवर्स इमेज सर्च करने पर, हमें 14 सितंबर, 2020 को साथियम न्यूज़ चैनल द्वारा अपलोड किया गया एक यूट्यूब वीडियो मिला.
तमिल में वीडियो के साथ शीर्षक 'हिंदी विरोध के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन अब दक्षिण भारत में ही नहीं, बल्कि उत्तर में भी दिखता है'.
(तमिल में: "தெற்கில் மட்டுமல்ல.. வடக்கிலும் இந்தி திணிப்புக்கு எதிர்ப்பு")
हालांकि, बूम यह पता लगाने में असमर्थ रहा कि वीडियो कहां शूट किया गया था.
ए.एन.आई, अन्य मीडिया संस्थानों ने बालाकोट पर की गलत रिपोर्टिंग