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रोज़मर्रा

बिहार चुनाव: कहानी एक इकोनॉमिस्ट, एक इलेक्ट्रीशियन और बिहारी मज़दूरों के संघर्ष की

जानिये क्यों विख्यात इकोनॉमिस्ट जौं द्रेज़ बिहार चुनावों में कर रहे हैं मनरेगा एक्टिविस्ट संजय साहनी के लिए कैंपेनिंग

By - Saket Tiwari | 9 Nov 2020 4:17 PM GMT

बिहार का चुनावी महासंग्राम अब ख़त्म हो चूका है, योद्धा अपने अपने खेमों में लौट चुके हैं और अब इंतज़ार है तो सिर्फ़ सुबह के सूरज का जो कल बिहार में शायद एक नया राजनैतिक सवेरा ले कर आएगा |

ये चुनाव कई मायनों में अलग रहा है, जैसे कि महामारी के बीचो बीच तीन चरणों में मतदान का कराया जाना, कई राजनैतिक पार्टियों का एक महागठबंधन बनाना  इत्यादि | इसी बीच बिहार चुनावों में कुछ ऐसे चहरे भी सामने आये  हैं जिनकी कहानी औरों से इतर है | ऐसे ही एक निर्दलीय प्रत्याशी हैं संजय साहनी | तैंतीस वर्षीय साहनी बिहार चुनाव में कुढ़नी विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय खड़े हैं |

उनकी ज़िन्दगी के पिछले करीब बीस साल का सफ़र उनकी उम्मीदवारी को कुछ हटकर बनाता है | खुद को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा एक्टिविस्ट बताने वाले साहनी इस वक़्त खबरों में बने हैं क्योंकि प्रख्यात अर्थशास्त्री जौं द्रेज़ (Jean Dreze) उनके चुनावी कैंपेन में उनकी मदद कर रहे हैं |

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कुढ़नी विधानसभा क्षेत्र में अब तक भारतीय जनता पार्टी के नेता केदार प्रसाद गुप्ता विधायक हैं | उन्होंने 2015 में जेडीयू के मनोज कुशवाहा को हराया था | इस बार एन.डी.ए से दुबारा केदार गुप्ता को टिकट मिला है एवं आर.जे.डी ने अनिल साहनी को टिकट दिया है | लड़ाई मुख्यतः तीन तरफ़ा है |

एक माइग्रेंट वर्कर

साहनी ने 7 वीं कक्षा तक पढ़ाई की और काम की तलाश में 2002 में दिल्ली पहुंचे | वहां कुछ महीने इधर उधर काम करने के बाद इलेक्ट्रीशियन का काम सीखा | बूम से हुई बातचीत में साहनी ने हमें बताया, "मैंने सात महीने में इलेक्ट्रीशियन का काम सीख लिया था | रोज़ाना तो काम मिलता नहीं था पर कांट्रेक्टर के माध्यम से कभी-कभार अंडर कंस्ट्रक्शन बिल्डिंग में वायरिंग का काम करता था | कुछ महीने के बाद लगा की खुद की दूकान होना चाहिए तो मैंने दिल्ली के जनकपुरी में एक छोटी सी दुकान ली और अपना नाम और नंबर का बोर्ड लगा दिया" |

इलेक्ट्रीशियन से मनरेगा एक्टिविस्ट

बात है 2011 दिसंबर की जब साहनी दिल्ली से अपने गांव रतनौली आये हुए थे | हर डेढ़-दो साल में उनका गाँव आना होता क्योंकि परिवार बिहार के इसी गांव में रहता था | उस दिसंबर रतनौली में संजय ने लोगों को मनरेगा के बारे में बात करते सुना: 'कुछ अधिकारी आते हैं और कागज़ पर मनरेगा के नाम से अंगूठा' लगवा कर ले जाते हैं | यह कागज़ बैंक सम्बन्धी होते हैं पर कोई रूपया नहीं मिलता |

"ऐसा हर महीने में दो-तीन बार होता था," संजय ने बूम को बताया |

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यह बात उनके दिल्ली लौट जाने पर भी दिमाग से नहीं गयी | एक दिन साहनी जनकपुरी में अपनी दुकान के सामने स्थित एक इंटरनेट कैफ़े में गए और 'बिहार मनरेगा' सर्च किया | सुना था गूगल पर खोजने पर सब मिलता है इसीलिए कोशिश की, संजय बताते हुए आगे जोड़ते हैं कि उन्हें काफ़ी वक़्त लगा, लोगों को देखते हुए टाइप करने और सर्च करने में |

"मैं काफ़ी लम्बे वक़्त तक बैठा रहा और जब टाइप किया तो मझे मुज़फ़्फ़रपुर दिखा | यह मेरा ज़िला था तो मैंने आगे देखा | मुझे मेरा गांव भी दिखा और मेरे पड़ोस में रहने वाले महेंद्र पासवान और गांव के सारे लोगों के नाम आ गये | उनके नामों के सामने कुछ रकम लिखे हुए थे," साहनी ने कहा |

"मैंने सारे डाक्यूमेंट्स को प्रिंट किया और दो तीन दिन बाद गांव आ गया | यहां पता करने पर मुझे मालुम हुआ कि किसी के पास पैसे नहीं आये हैं," उन्होंने कहा, "लोगों ने मुझे पागल कहा और मुझपर फ़र्ज़ी बात करने का आरोप लगाया |"

उनके बाद वे फिर दिल्ली लौटे और इस पर और खोज की | "मैंने इंटरनेट पर 'मनरेगा कांटेक्ट' कर खोज की | कई लोगों को फ़ोन किया पर लोग मुझे इधर-उधर घुमाते रहे | कुछ दिनों के भीतर मैं निखिल डे और जौं द्रेज़ के नंबर तक पंहुचा | कॉल करने पर निखिल डे से मुलाकात हुई," संजय ने कहा |

यह सब 2012 में हुआ और तब निखिल डे से मनरेगा के बारे में संपूर्ण जानकारी लेने के बाद उन्होंने गांव आकर लोगों से कहा कि इस स्कीम के तहत उन्हें काम मिलेगा | हालांकि लोगों ने शुरुआत में बात पर भरोसा नहीं किया पर जब संजय खुद काम करने लगे तो धीरे धीरे और लोग जुड़ने लगे |

"हम अब तक करीब 1,15,000 लोग हैं जो मनरेगा में जुड़ चुके हैं | इसमें 99 % महिलाएं हैं," संजय ने कहा |

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कैंपेनिंग में जौं द्रेज़ का जुड़ना

संजय का कहना है कि चुनाव हमेशा से जातपात के आधार पर लड़े जाते रहें हैं | "हमारा सब अलग है, मैं खुद एक मज़दूर हूँ, मैं मज़दूरों के लिए सालों से मेहनत कर रहा हूँ | इन लोगों के बगैर मेरा क्या है | चुनाव लड़ने का निर्णय हमारे संगठन - समाज परिवर्तन शक्ति संगठन - में सभी ने किया है और इसीलिए मैं तैयार हुआ," वो बूम को आगे बताते हैं |

जाने माने अर्थशास्त्री जौं द्रेज़ से उनका संपर्क सबसे पहले 2012 में हुआ था जब वे मनरेगा के बारे में लोगों से बात करने की कोशिश कर रहे थे और मनरेगा को समझ रहे थे | आपको बता दें कि जौं द्रेज़ ने मनरेगा को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है | वे यु.पी.ए-1 और यु.पी.ए-2 के दौरान राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य रहे हैं | इसके अलावा जौं द्रेज़ ने नोबल पुरूस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्यसेन के साथ 'An Uncertain Glory: India and its contradiction' किताब भी लिखी है |

साल 2012 से ही जौं द्रेज़ संजय की मदद करते रहे हैं | द्रेज़ की अपील से ही कई छात्र/छात्राएं संजय के कैंपेन में मदद करने के लिए इकठ्ठा हुए हैं | यह पहला मौका नहीं है जब जौं द्रेज़ संजय की मदद के लिए आगे आये हैं |

संजय के कैंपेन से ही जुड़ी जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से राजनीतीशास्त्र में एम.फील छात्रा शैलजा टंडन ने हमें बताया, "मुझे इस कैंपेन से जुड़ने पर लोकतंत्र का असली चेहरा देखने को मिला | मैंने इस कैंपेन में दस दिन गुज़ारे और वहां की उत्सुकता और लोगों के जुड़ना देखते ही बनता था | हम दिन भर लोगों से मिलते थे, खाने पीने का ठिकाना नहीं था | ये बहुत ही ज़मीनी अनुभव था | जौं द्रेज़ सर हमें अक्सर इस कैंपेन के दौरान क्रिटिकल सोच और डेमोक्रेसी पर समझाइश देते रहते थे |"

हालांकि लोकतंत्र के इस चुनाव रूपी इंजन में ईंधन का काम करता है पैसा | कैंपेनिंग के लिए पैसो की दरकार होती है, लिहाज़ा हमने भी साहनी से ये सवाल पूछा | "पैसे नहीं हैं पर हम सभी मज़दूर घर-घर जाकर कुछ दाल, आटा, चावल लेकर कैंप लगा कर चुनाव लड़ रहे हैं | लाखों लोगों की मदद से यह संभव हुआ है," साहनी ने कहा |

मैंने खुद की जेब से करीब 12,000 रूपए दिए हैं | फ़ंडिंग 'आवर डेमोक्रेसी' प्लेटफार्म से और संजय साहनी के पहचान वालों की मदद से की गयी है | उनकी जेब से कुछ पैसे नहीं लगे, शैलजा ने बूम को बताया |

संजय साहनी कैंपेन के लिए आवर डेमोक्रेसी प्लेटफार्म पर अब तक दस लाख से ज़्यादा रूपए इकट्ठे हो चुके हैं | हालांकि टारगेट बीस लाख रुपयों का था पर वो पूरा नहीं हुआ |

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