जनता दल (यूनाइडेट) की सोशल मीडिया टीम में तैनात सीनियर कंसल्टेंट राहुल (35) इन दिनों अपना ज्यादातर समय फेसबुक और इंस्टाग्राम इंसाइट्स चेक करने में बिता रहे हैं. वह देखना चाहते हैं कि पार्टी के इलेक्शन कैंपेन वीडियो सीरीज- चाचा चौधरी-साबू और चंगू-मंगू पर वोटर किस तरह की प्रतिक्रिया दे रहे हैं.
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) की मदद से तैयार किए गए कॉमिक बुक कैरेक्टर इन वीडियो के जरिए बिहार में नीतीश कुमार के विकास कार्यों को दिखा रहे हैं.
पार्टी के डिजिटल कैंपेन को बल देने वाली तकनीक पर गर्व जताते हुए राहुल कहते हैं, "इन्हें अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा है." एक वीडियो में चाचा चौधरी साबू को राजधानी में नए फ्लाइओवर की सैर कराते हुए कहते हैं, "अब पटना की पहचान गड्ढों से नहीं, ऊंचाइयों से होती है साबू, ये है नया बिहार, नीतीश बाबू का विकसित बिहार..." #NitishKaVikasModel और #NitishKumar जैसे हैशटैग के साथ शेयर किए गए इस वीडियो को अब तक 4 लाख से भी अधिक व्यू मिल चुके हैं. हालांकि इस पर कहीं भी ‘AI-generated’ का वॉटरमार्क नहीं है.
राहुल बताते हैं कि टीम के रोजाना होने वाले ब्रेनस्टॉर्मिंग सेशन के दौरान यह आइडिया दिया गया. वह कहते हैं, "हमने चाचा चौधरी सीरीज के तहत करीब 16-17 वीडियो बनाए, जिसमें बिहार के अलग-अलग लोकेशन के विकास कार्यों को दिखाया गया." राहुल आगे कहते हैं, "AI जिस तरह से विकसित हुआ है,उससे हम जिन चीजों की कल्पना कर रहे हैं उसे ग्राफिक फॉर्मेट में रिप्रजेंट कर पाते हैं."
चाचा चौधरी के बाद जेडीयू की तरफ से एक दूसरी सीरीज लॉन्च की गई: चंगू-मंगू, इसमें राहुल गांधी और तेजस्वी यादव के एनिमेटेड वर्जन को दिखाया गया है जो बिहार की यात्रा करते हुए नीतीश सरकार के विकास कार्य और कानून व्यवस्था की स्थिति पर हैरान हो रहे हैं. इसके जरिए विपक्ष की वोटर अधिकार यात्रा पर कटाक्ष किया गया.
इनमें से किसी भी वीडियो को आउटसोर्स नहीं किया गया बल्कि जेडीयू के सोशल मीडिया की इनहाउस टीम ने इन्हें AI टूल्स के जरिए तैयार किया है जिसमें 7-8 वीडियो एडिटर समेत लगभग 100 मेंबर हैं.
राहुल इनहाउस प्रोडक्शन के फैसले को रणनीतिक बताते हैं, "मार्केट से हायर किए गए लोग आमतौर पर थोड़े समय के लिए ही साथ रहते हैं, लेकिन हमारे सदस्य कई वर्षों से जुड़े हैं. इससे आपसी विश्वास बना है.” टीम को शुरुआत में कुछ कंसल्टेंट से ट्रेनिंग मिली थी, लेकिन अब ज्यादातर काम इनहाउस ही हो रहा है. राहुल का अनुमान है कि उनके मीम्स और एनिमेटेड ऐड अब हर महीने लगभग 70 मिलियन यूनीक यूजर तक पहुंच रहे हैं.
बिहार का चुनाव और प्रचार हमेशा ध्यान खींचते आए हैं लेकिन 2025 में कॉमिक्स से लेकर एनिमेशन, वॉट्सऐप फॉरवर्ड से वीडियो तक पहली बार राज्य में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का बढ़-चढ़कर इस्तेमाल हो रहा है.
बिहार की राजनीति में एआई का इस्तेमाल नया और रोमांचक है लेकिन यह एक गंभीर समस्या भी पैदा कर रहा है. एआई के जरिए तैयार किए जाने वाले कंटेट में राजनेता वह बोली और भाषा में बोलते नजर आ रहे हैं जिसे उन्होंने असल जीवन में इस्तेमाल भी नहीं किया. कॉमिक कैरेक्टर का इस्तेमाल पार्टी विशेष के प्रचारक के रूप में किया जा रहा है. मीम्स इस तरह पेश किए जाते हैं कि सामने वाले के लिए समझना मुश्किल हो जाता है कि यह सिर्फ ह्यूमर के लिए है या फिर इसके पीछे कोई राजनीतिक संदेश छिपा है. कुल मिलाकर चुनाव प्रचार में एआई का इस्तेमाल सच्चाई और प्रोपेगैंडा के बीच अंतर को मिटाते हैं और वोटर को यह पता ही नहीं चल पाता कि यह सच है या फिर मशीन जनरेटेड.
तकनीक नई, पुरानी रणनीति
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की बिहार यूनिट के सोशल मीडिया हेड अनमोल सोवित अपना फोन पास में रखते हैं, जिसकी स्क्रीन पर दर्जनों वॉट्सऐप ग्रुप्स से सैकड़ों मेसेज लगातार फ्लैश होते हैं. हर ग्रुप एक-एक बूथ से जुड़ा है. वह कहते हैं, “हमारे पास बूथ स्तर पर वॉट्सऐप ग्रुप हैं, जो हमें बूथ विशेष पर टार्गेट मेसेज भेजने में मदद करते हैं.”
पार्टी एआई का इस्तेमाल आकर्षक कैंपेन बनाने से कहीं ज्यादा इसके जरिए बड़ी संख्या में लोगों तक पहुंचने में कर रही है. सोवित ने बताया, “बीजेपी ने अपने कार्यकर्ताओं को एआई-जनित वीडियो बनाने की ट्रेनिंग दी है.” इसके लिए गूगल पर फ्री और सार्वजनिक रूप से उपलब्ध टूल की मदद ली गई.
इन ट्रेनिंग सेशन को उनकी रोजाना होने वाली मीटिंग के साथ शामिल किया गया. वॉलनटियरों ने इन ट्रेनिंग के जरिए सीखा कि किस तरह ChatGPT का इस्तेमाल करके इमेज कार्ड और शॉर्ट वीडियो बनाए जा सकते हैं. सोवित कहते हैं, “मकसद यह है कि हमारे वर्कर पीछे न छूटें. तकनीक की थोड़ी-सी भी समझ उन्हें मदद कर सकती है, न सिर्फ संगठनात्मक काम में बल्कि व्यक्तिगत रूप से भी.” इसके अलावा वर्कशॉप में आईटी एक्ट के बारे में विशेष रूप से बताया गया. सोवित कहते हैं, "ताकि कार्यकर्ता एआई का गलत इस्तेमाल न करें और खुद को मुश्किल में न डालें.”
बिहार बीजेपी आईटी सेल के सह-संयोजक सोमेश पांडेय ने बताया कि ट्रेनिंग के दौरान थ्योरी से ज्यादा प्रैक्टिकल पर फोकस रहा. उन्होंने कहा, “हमने कार्यकर्ताओं को दिखाया कि कैसे आसान प्रॉम्प्ट देकर रील बनाई जा सकती है, जैसे व्यंग्य के तौर पर लालू प्रसाद यादव को आठ साल के बच्चे में बदलना और फिर उसमें वॉइस इफेक्ट जोड़ना.”
उन्होंने आगे कहा कि इसका मकसद कंटेंट को नया बनाए रखना है. वह कहते हैं, “पब्लिक एक ही तरह के पोस्ट बार-बार देखकर बोर हो जाती है. एआई के जरिए हम नई चीजें आजमा रहे हैं और उसका रिस्पॉन्स अच्छा मिल रहा है."
शुरुआत में कुछ कार्यकर्ताओं को इसे सीखने में मुश्किल आई लेकिन जब इसे स्टेप-बाय-स्टेप समझाया गया, तो "उन्हें इसमें इंट्रेस्ट आने लगा, खासकर उन लोगों को जो पहले से सोशल मीडिया पर एक्टिव थे.”
राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) का दावा है कि वह बिहार में एआई कैंपेन चलाने वाली पहली पार्टी है.आरजेडी की सोशल मीडिया टीम के एक सदस्य ने कहा, “हम बिहार में पहली पार्टी थे जिसने मैसेजिंग, गानों और वीडियो में एआई का इस्तेमाल शुरू किया.”
उनका मॉडल मॉड्यूलर है, यानी छोटे-छोटे 7-8 सेकंड के एआई क्लिप को जोड़कर रील बनाई जाती है. ग्राफिक्स के लिए वे Grok और वीडियो के लिए Google VEO वीडियो के लिए जैसे टूल्स का इस्तेमाल करते हैं.
वह कहते हैं, "2014 और यहां तक कि 2019 के प्रचार में कैप्शन के साथ में बस फोटो शेयर की जाती थी, अब एआई का दौर है."
कांग्रेस अपने कैंपेन में मौजूदा सरकार पर व्यंग्य के लिए एआई का इस्तेमाल कर रही है. बिहार में पार्टी के सोशल मीडिया हेड सौरभ सिन्हा कहते हैं, "इस बार हमने अपने कैंपेन में एनिमेटेड बंदर का कैरेक्टर लॉन्च किया है जिसे अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा है. यह बंदर युवा पीढ़ी को रिप्रजेंट करता है- जैसे वह गमछे के साथ टी-शर्ट और पैंट पहनता है. इसके साथ ही हम फर्स्ट टाइम वोटरों को टारगेट कर रहे हैं."
फेसबुक पर एनिमेटेड बंदर वाले रील पसंद किए जा रहे हैं, हर एक ने कम से कम दस लाख व्यूज पार कर लिए हैं. इनमें से ‘वोट चोरी’ पर बनी एक रील तेजी से वायरल हो गई है, जिसे लगभग 40 लाख लोगों ने देखा और 20 हजार बार शेयर किया गया. इसे भोजपुरी गायक पवन सिंह के मशहूर गाने 'लालीपॉप लागेलू' की धुन पर बनाया गया है. कमेंट सेक्शन में कहीं लोग भोजपुरी गाने की पैरोडी पर ठहाके लगा रहे हैं तो कहीं चुनाव आयोग पर तीखे तंज कसते हैं. रील में बंदर एक लाइन गाता है, "वोटवा चोर लागेला.” इसमें पीएम मोदी और मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के कार्टून कैरिकेचर दिखाए जाते हैं, जिन्हें एआई की मदद से बनाया गया है.
कम लागत में असरदार कामआकर्षक और ट्रेंडिंग वीडियो बनाने से परे एआई के इस्तेमाल का असली कारण इसकी लागत है. कंसल्टेंट मानते हैं कि असली आकर्षण बड़े पैमाने पर कुशलता है. कंसल्टेंसी पॉलिटिकल हब के डायरेक्टर राज अभिषेक ने इस इकनॉमिक्स को करीब से देखा है. उन्होंने बताया, “वॉट्सऐप मैसेजिंग, जिसकी पहले प्रति मेसेज 80 पैसे की लागत आती थी, अब केवल 6 पैसे में हो जाती है.”
उनकी कंपनी एआई-जनरेटेड वीडियो बना रही है, जिनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को स्थानीय बोलियों में मतदाताओं को संबोधित करते दिखाया जाता है. इन्हें सीधे लोगों के वॉट्सऐप इनबॉक्स में भेजा जाता है.
वह कहते हैं, “हम क्षेत्रीय भाषाओं में एआई वॉइस क्लोनिंग का भी उपयोग करते हैं, जिसकी स्क्रिप्ट पार्टी और हमारी टीम के बीच कई दौर की बातचीत के बाद तैयार की जाती है.” वह बताते हैं कि पिछले साल झारखंड चुनाव में यह तरीका खास तौर पर असरदार साबित हुआ. इससे एक भावनात्मक जुड़ाव बना. कंसल्टेंट ने बताया किया कि उन इलाकों में बीजेपी को फायदा हुआ था.
आरजेडी के सोशल मीडिया टीम के सदस्य ने भी बताया, “अब हम सिर्फ 2,000 से 3,000 रुपये में एक मिनट का वीडियो बना सकते हैं. पहले हमें स्थानीय कलाकार ढूंढने पड़ते थे, उन्हें भुगतान करना होता था, वीडियो शूट करना होता था, पोस्ट-प्रोडक्शन संभालना पड़ता था और म्यूजिक बनाना पड़ता था. उस पूरी प्रक्रिया में तीन गुना ज्यादा खर्च आता था.”
कांग्रेस ने भी बीजेपी पर तीखे हमले के लिए एआई का सहारा लिया है. उदाहरण के तौर पर, उसने मोतिहारी की एक चीनी मिल के दोबारा शुरू कराने के पीएम मोदी के वादे पर तंज कसते हुए सिंथेटिक ग्राफिक्स का इस्तेमाल किया और 70,000 करोड़ रुपये के घोटाले पर कैग की रिपोर्ट को लेकर नीतीश सरकार को घेरा.
सौरभ सिन्हा कहते हैं, “हमारा मानना है कि जितनी नई तकनीक का इस्तेमाल करेंगे, उतना ही यह लोगों का ध्यान खींचेगा.” हालांकि उन्होंने माना कि कांग्रेस ने इस मामले में आरजेडी के मुकाबले देर से तकनीक का इस्तेमाल किया.
एआई के इस्तेमाल में चुनौतियां भी हैं
जहां आईटी सेल द्वारा मीम और रील से टाइमलाइन फुल है, वहीं कंसल्टेंट बिहार के एआई कैंपेन की मशीनरी चला रहे हैं. राज्यतंत्र, लीडटेक और पॉलिटिकल हब जैसी फर्में एआई का इस्तेमाल सिर्फ कंटेंट बनाने के लिए ही नहीं, बल्कि जनभावना मापने, टर्नआउट का अनुमान लगाने और मतदाताओं को माइक्रो-टार्गेट करने के लिए भी कर रही हैं.
राज्यतंत्र ने अर्थशास्त्र नाम से एक समर्पित कैंपेन प्लेटफॉर्म लॉन्च किया है, जिसे ऑल-इन-वन डैशबोर्ड के रूप में पेश किया गया है जो ऑनलाइन हो रही चर्चाओं को सुनता है, वेब से अतिरिक्त डेटा कलेक्ट करता है और बूथ-स्तर पर वोटर के बिहेवियर की स्टडी करता है.
प्लेटफॉर्म को हेड करने वाले मदन ने समझाया, "हम बूथ-स्तरीय डेटा, पिछले चुनाव का प्रदर्शन, टर्नआउट और जनभावना के पैटर्न का उपयोग करते हैं और इनकी मानव आकलनों से तुलना करते हैं. जो काम पहले एक्सेल में करने में कई दिन लग जाते थे, अब एक घंटे से भी कम में हो जाता है लेकिन आखिरी फैसला ह्यूमन जनरेटेड ही होता है.”
इसके उलट, लीडटेक एआई-संचालित इंटरएक्टिव वॉइस रिस्पॉन्स (IVR) सिस्टम के जरिये वोटर सर्वे पर फोकस करता है. प्री रिकॉर्डेड सिंथेटिक वॉइस वोटर्स को कॉल करती हैं, तयशुदा सवाल पूछती हैं, जवाब रिकॉर्ड करती हैं और उन्हें टेक्स्ट में बदलती हैं, हालांकि इसकी खामियां साफ नजर आती हैं.
लीडटेक के विवेक सिंह बाघरी ने कहा, “एआई वॉइस बारीकियों को नहीं समझ सकती, जैसे अगर कोई उत्तरदाता कहे कि वह विचारधारा की वजह से बीजेपी को वोट तो देगा लेकिन वह पार्टी के कामकाज से नाखुश है, एआई इसके संदर्भ को नहीं समझ पाएगा.”
इसीलिए इंसानों को अब भी कॉल्स को छांटना पड़ता है. वॉइस सैंपलिंग भी बिना मानवीय हस्तक्षेप के मुश्किल है. बाघरी ने कहा, “अगर किसी निर्वाचन क्षेत्र में 200 यादव, 300 ब्राह्मण और 200 ठाकुर हैं, तो सैंपल में यह अनुपात झलकना चाहिए. इसके बिना सर्वे नतीजे भ्रामक होंगे.” उन्होंने एक और चुनौती बताई, “पचास से साठ प्रतिशत लोग या तो कॉल उठाते ही नहीं, या जैसे ही समझ जाते हैं कि कॉल मशीनरी है, फोन काट देते हैं.”
इस पूरी प्रक्रिया को चलाने वाला डेटा पुराने ढंग से जुटाया जाता है. कैंपेन वर्कर कैलेंडर या पर्चे बांटते हैं जिन पर नेता की तस्वीर होती है और बदले में मोबाइल नंबर इकट्ठा करते हैं. बाद में इन्हें डेटाबेस में जोड़कर फॉलोअप कॉल और वॉट्सऐप मेसेज भेजे जाते हैं.
बाघरी ने स्वीकार किया कि सहमति (कन्सेंट) की परिभाषा यहां बहुत लचीली है.
इस बैकएंड को चलाने वाली ज्यादातर एआई सेवाएं इन-हाउस डेवलेप करने के बजाय थर्ड-पार्टी प्रोवाइडर से आउटसोर्स की जाती हैं. एनालिटिक्स के लिए कंसल्टेंट Sprout Social और Hootsuite Insights जैसे टूल का उपयोग करते हैं, वीडियो के लिए Pixverse और Runway AI, ग्राफिक्स के लिए Gemini और ChatGPT और आवाज के लिए ElevenLabs और India TTS.
इन आउटसोर्स टूल की मदद से कैंपेन लचीला तो हो जाता है, लेकिन जवाबदेही कमजोर पड़ जाती है. ये एआई टूल राजनीति के लिए नहीं, बल्कि मार्केटिंग या मनोरंजन के लिए बनाए गए थे और इनमें से कोई भी चुनावी पारदर्शिता को ध्यान में रखकर डिजाइन नहीं किया गया था.
सच और झूठ में फर्क करना मुश्किल
पारदर्शिता की कमी बिहार के एआई एक्सपेरिमेंट के हर स्टेज में झलकती है. राज अभिषेक ने स्वीकार किया कि उनकी एआई-जनरेटेड वीडियो पर कोई वॉटरमार्क नहीं होता, जिससे आम मतदाता के लिए सिंथेटिक और ऑथेंटिक कंटेंट में फर्क करना नामुमकिन हो जाता है.
उन्होंने कहा, “यही तो जोखिम का हिस्सा है, ऐसा कंटेंट देखने वाले मतदाता अक्सर असली भाषण और एआई से बनाए गए भाषण में अंतर नहीं कर पाते.”
इसे एड्रेस करने के लिए, पॉलिटिकल हब ने फैक्ट-चेकर को कॉन्ट्रैक्ट पर काम पर रखा है. इनका काम इंफॉर्मेशन के सर्कुलेशन से पहले उसे वेरिफाइ करना और किसी विशेष क्षेत्र में पहले से फैल रहे फेक मैसेज का काउंटर करना है.
लेकिन अभिषेक ने यह भी माना कि पहचान करना अभी भी मुश्किल है: एआई वॉइस और विजुअल इतने विश्वसनीय हो गए हैं कि सच और झूठ में फर्क करना कठिन हो गया है.
अन्य फर्मों ने सेल्फ रेग्युलेट करने की कोशिश की है. राज्यतंत्र कहता है कि वह एआई-जनरेटेड क्रिएटिव का ऑडिट ट्रेल मेनटेन करता है और उन्हें कंट्रोल्ड फोल्डरों में स्टोर करता है. कंपनी ने कहा, “जब इन्हें सोशल मीडिया पर इस्तेमाल किया जाता है, तो हम उनके सोर्स का खुलासा करते हैं,” साथ ही यह भी बताया कि “भविष्य के नियमों में एआई-जनरेटेड कंटेंट को स्पष्ट रूप से लेबल करना अनिवार्य होना चाहिए.”
लेकिन फिलहाल, यह खुलासा स्वेच्छा पर आधारित है. कोई बाध्यकारी नियम नहीं हैं जो पार्टियों को सिंथेटिक कंटेंट लेबल करने के लिए मजबूर करें और इसका नतीजा यह है कि मतदाता एआई-चलित नैरेटिव की बाढ़ में इस बात को लेकर उलझन में रहते हैं कि उनके सामने क्या सच परोसा जा रहा है और क्या फेक.
AI को लेकर नियमों की कमी
उन देशों से इतर जहां चुनावों में एआई को लेकर कानून उभर रहे हैं, भारत में इसे लेकर कोई नीति नहीं है. अमेरिका में, कई राज्यों ने राजनीतिक विज्ञापनों में एआई के उपयोग का खुलासा करने या धोखाधड़ी वाले डीपफेक को प्रतिबंधित करने वाले कानून पास किए हैं. भारत में, चुनाव आयोग (ECI) के कदम केवल एडवाइजरी तक सीमित हैं.
ईसीआई ने पार्टियों से आग्रह किया है कि एआई-जनरेटेड कंटेंट को “AI-Generated” या “Synthetic Content” जैसे टैग के साथ लेबल किया जाए, खासकर आचार संहिता की अवधि के दौरान सर्टिफिकेशन के लिए जमा किए गए मैटेरियल में. मई 2024 में, आयोग ने पार्टियों को नोटिस मिलने के तीन घंटे के भीतर डीपफेक हटाने का भी निर्देश दिया था.
हालांकि आचार संहिता के बाहर, ये नियम कोई वास्तविक असर नहीं रखते. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के पास भी कोई बाध्यकारी ढांचा नहीं है. कांग्रेस के सौरभ सिन्हा ने माना, “फेसबुक और यूट्यूब अब एआई कंटेंट को कम प्रमोट कर रहे हैं, इसलिए फिलहाल हमने इसका उपयोग कम कर दिया है.”
लेकिन ये केवल एल्गोरिदम में बदलाव हैं, कोई लागू होने वाले मानक नहीं. इसका नतीजा है रेगुलेटरी गैप, जिसका फायदा पार्टियां और कंसल्टेंट उठा रहे हैं. वे आसानी से टूल का इस्तेमाल करके एआई कंटेंट बना सकते हैं, वॉटरमार्क हटा सकते हैं और आचार संहिता लागू होने से बहुत पहले सिंथेटिक वॉइस या इमेज सर्कुलेट कर सकते हैं.


