वायु प्रदूषण एक विश्व-व्यापी मुद्दा है पर जैसे जैसे सर्दी का मौसम हमारे देश में दस्तक देने लगता है, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और इसके आस पास के कई इलाके इस प्रदुषण से बहुत करीब से रूबरू होते हैं। धुंध के साथ धुंए के मिश्रण से बना 'स्मॉग' (smog) दिल्ली और नेशनल कैपिटल रीजन (NCR) में पड़ने वाले क्षेत्रों को अपनी गिरफ़्त में ले लेता है। ये वो समय होता है जब खुली हवा में सांस लेना भी लोगों के लिए एक चुनौती सा प्रतीत होता है।
इस प्रदुषण के कई कारण हैं जैसे कि सड़कों से उठते धुल का गुबार, गाड़ियों के एग्जॉस्ट से निकलता ज़हरीला धुंआ, निर्माणाधीन बहुमंज़िला इमारतों के कंस्ट्रक्शन साइट्स, ईंट भट्टे, जलते हुए कूड़े के ढेर और पावर प्लांट्स। मगर इन सभी नामों में एक नाम ऐसा भी है जो पिछले कुछ सालों से राष्ट्रीय स्तर पर बार बार सुना जा रहा है - पराली जलाना (stubble burning)।
सर्दियां आते ही पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान गेहूं की बुवाई की तैयारी शुरू कर देते हैं। जैसे जैसे वो पिछली फ़सल के अवशेषों को जलाकर खेत साफ़ करते हैं, खेतो से उठता धुंआ हवा में घुल कर उसे प्रदूषित करता जाता है।
अगर आंकड़ों की माने तो 21 सितंबर, 2020 से लेकर 10 नवंबर तक अकेले पंजाब में पराली जलाने की 62,444 घटनाएं दर्ज की जा चुकी हैं।
क्या है पराली जलाना, किस तरह ये हवा को प्रदूषित करता है और इसका रोका जाना क्यों ज़रूरी है, आपको बताने की कोशिश करता है ये रिपोर्ट।
पराली जलाना क्या होता है?
फ़सल की कटाई में अनाज वाला हिस्सा काटने के बाद बाकी के हिस्से को खेत में ही छोड़ दिया जाता है। बाकी बचे इसी हिस्से को पराली कहते है। अब अगली फ़सल बोने के लिए किसान को खेत साफ़ करना पड़ता है और इसके लिए अक्सर खेत में खड़ी पराली को जला दिया जाता है जिसे आप और हम 'पराली जलाना' (अंग्रेज़ी में stubble burning') कहते है।
पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पराली जलाना प्रचलित है। ऐसा इसीलिए भी है क्योंकि ये काफ़ी कृषि प्रधान जगहें हैं। ये वो समय होता है जब खेतों में खरीफ के फसलों की कटाई हो चुकी होती है और रबी के फ़सल की बुवाई की तैयारी शुरू होती है।
पराली क्यों जलाई जाती हैं?
पराली जलाने के कारण जानने के लिए उत्तर भारत में लागू भूजल नीतियों को समझना ज़रूरी है। Nature Sustainability नामक पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, "उत्तर भारत में भूजल की कमी एक निरंतर चिंता का मुद्दा रहा है और चावल की खेती काफ़ी मात्रा में पानी का इस्तेमाल करती है।"
भूजल के संरक्षण के लिए 2009 में लागू किये गए दो एक्ट्स के अनुसार भूजल बचाने के लिए किसान मई महीने में चावल को रोपाई के लिए धान में ट्रांसप्लांट नहीं कर सकते। यह काम वो जून के अंत तक बारिश शुरू होने पर ही कर सकते है। इस विलंब के कारण चावल की कटाई में देरी होती है और ये काम गेहूँ की बुवाई के समय के बहुत करीब आ जाता है।
गेहूँ की बुवाई नवंबर के बीच शुरू होती है। 2009 की नीतियों ने चावल की कटाई को अक्टूबर के अंत में ला दिया, जिसके कारण किसानों को खेतों से पराली साफ़ करने के लिए बहुत कम समय मिल पाता है। चावल की कटाई और गेहूँ की बुवाई के बीच सिर्फ़ 2-3 हफ़्ते बचते हैं, जिसमें किसानों को खेत साफ़ करने का सबसे फ़टाफ़ट और आसान तरीका चावल की पराली को जलाना ही नज़र आता है।
खेतों में पराली रह जाने का एक बड़ा कारण है कंबाइन हार्वेस्टर मशीन।
"फ़सल की कटाई के लिए इस्तेमाल की जाने वाली यह मशीन केवल फ़सल के ऊपरी हिस्से - यानी अनाज - को काटती है। बाकी का हिस्सा ज़मीन में ही गड़ा रहता है," हेमंत कौशल, प्रोजेक्ट कोर्डिनेटर, सेंटर ऑफ़ एक्सीलेंस फ़ॉर रिसर्च ऑन क्लीन एयर (CERCA) ने BOOM को बताया।
"जब किसान या मज़दूर हाथों से फ़सल की कटाई करते हैं तब पराली नहीं बचती क्योंकि वें पूरी फ़सल काट देते हैं, केवल अनाज का हिस्सा नहीं," एल.एस. कुरिंजी, शोध विश्लेषक, काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (CEEW) ने हमें बताया।
"हालांकि हाथ से हार्वेस्ट करना एक श्रम-गहन कार्य है। पंजाब और हरियाणा में बड़े खेत होने की वजह से हार्वेस्ट मशीन को पसंद किया जाता है," कुरिंजी ने आगे बताया।
पराली जलाने के नुक्सान
वायु प्रदूषण से इतर भी पराली जलाने के कई अन्य नुकसान हैं। इससे ज़मीन का तापमान बढ़ जाता है जिससे मिट्टी को लाभ पहुंचाने वाले जीव नष्ट हो जाते हैं। इससे मिट्टी की सबसे ऊपरी परत में पाए जाने वाले कार्बन और नाइट्रोजन जैसे पोषक तत्वों की मात्रा भी कम हो जाती है। ये पोषक तत्व फ़सल की जड़ों के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।
अब बात करते हैं पराली जलाने से होने वाले वायु प्रदुषण की। जलाये जाने पर चावल की पराली हवा में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), मीथेन (CH4) और नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) रिलीज़ करती है। कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन दोनों ग्रीनहाउस गैस हैं जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए ज़िम्मेदार हैं। जलने से पैदा होने वाले प्रदूषक विभिन्न बीमारियों का कारण बनते हैं।
पराली जलाना और वायु प्रदुषण
स्टबल बर्निंग मई के महीने में भी होती है जब गेहूँ की पराली जलाई जाती हैं। हालांकि गेहूँ की पराली चारे के लिए इस्तेमाल की जा सकती हैं जिससे पराली की मात्रा काम होती हैं। इसके अलावा यह गर्मी का मौसम है।
"गर्मियों में सूर्य की किरणें प्रदूषकों को बिखेर देती हैं। इस वजह से धुएं से निकले प्रदूषक हवा में ऊपर चले जाते हैं और ज़मीन के करीब जमा नहीं होते," कुरिंजी ने BOOM को बताया।
चावल की पराली सर्दी के महीनों में जलाई जाती हैं जब हवा की रफ़्तार कमज़ोर होती हैं। "ठंडी हवा भारी होती है इसलिए प्रदूषकों को ज़मीन के करीब रखती है," हेमंत कौशल ने हमें बताया। "यह प्रदूषित हवा लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती है," कौशल ने आगे जोड़ा।
"पंजाब और हरियाणा से बहने वाली हवा दिल्ली में आती है और जली हुई पराली का प्रदूषण साथ लाती है," उन्होंने BOOM को बताया। ठण्ड की वजह से प्रदूषित कणों को बिखरने की जगह नहीं मिलती, जिनसे ये लोगों के इर्दगिर्द रहते हैं और स्वास्थ्य को ज़्यादा नुक्सान पहुंचाते हैं।
यह देखने के लिए कि सर्दियां उत्तरी क्षेत्रों में वायु प्रदूषण कैसे बढ़ाती हैं, हमने अप्रैल-मई (गर्मी के मौसम) और अक्टूबर-नवंबर (सर्दियों के मौसम) में वायु गुणवत्ता (एयर क्वालिटी इंडेक्स - AQI) की तुलना की। जितना ज़्यादा AQI, उतनी खराब हवा। इन दोनों मौसम में पराली जलाई जाती हैं। एक सैंपल क्षेत्र के तौर पर हमने लुधियाना, पंजाब को चुना।
नीचे बने ग्राफ़ में आप देख सकते हैं कि हवा की क्वालिटी सर्दियों के महीने (अक्टूबर-नवंबर) में ज़्यादा खराब हैं। अप्रैल-मई 2020 में लुधियाना का औसत AQI 78.39 (संतोषजनक) है, जबकि अक्टूबर-नवंबर 2020 में यह 177.42 (मॉडरेट) है।
पराली का उपयोग कैसे किया जा सकता है?
ऐसा नहीं है की पराली को जलाना ही एकमात्र विकल्प है। चूँकि फ़सल की पराली में नाइट्रोजन, फ़ॉस्फ़रस, सल्फ़र और पोटेशियम होते हैं, इसे मिट्टी में मिला देने से उसकी गुणवत्ता बढ़ती है।
Science Direct में छपे एक रिपोर्ट के मुताबिक पराली का उपयोग पॉवर प्लांट में ईंधन के रूप में, पल्प और पेपर उद्योगों में या ईंधन उत्पादन के रूप में किया जा सकता है। पराली का उपयोग खाद पैदा करने और सीमेंट और ईंटों के उत्पादन के लिए मिश्रण के रूप में भी किया जा सकता है।
सरकारी नीतियों का प्रभाव
पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश ने वायु (रोकथाम और प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, 1981 की धारा 19 (5) के तहत पराली को जलाने पर प्रतिबंध लगा दिया है। हालाँकि, 2018 के एक स्टैंडिंग कमिटी की रिपोर्ट कहती है कि पराली जलाने पर रोक लगाने में सरकार का प्रयास कमज़ोर रहा है। इन उपायों के बावजूद दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण कम नहीं हुआ है।
जबकि राज्य सरकारों ने किसानों को पराली जलाने से हतोत्साहित करने के लिए पैसों के रूप में पुरस्कार और दंड दोनों प्रावधान रखे हैं, कमिटी का कहना है कि किसानों को पराली जलाने के लिए दंडित करने के बजाय व्यावहारिक समाधान प्रदान किया जाना चाहिए।
"पराली जलाने से दिल्ली वासियों को ही नहीं बल्कि खेतों के आस पास रहते ग्रामीणों को भी उतना ही नुक्सान होता है," हेमंत कौशल ने BOOM को बताते हुए कहा: इसलिए, किसानों को इस मुद्दे के प्रति संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है। ग्राम पंचायतों को स्थानीय स्तर पर इस समस्या को हल करने की दिशा में काम करना चाहिए।