HomeNo Image is Available
AuthorsNo Image is Available
CareersNo Image is Available
फैक्ट चेकNo Image is Available
एक्सप्लेनर्सNo Image is Available
फास्ट चेकNo Image is Available
अंतर्राष्ट्रीयNo Image is Available
वेब स्टोरीज़No Image is Available
राजनीतिNo Image is Available
वीडियोNo Image is Available
HomeNo Image is Available
AuthorsNo Image is Available
CareersNo Image is Available
फैक्ट चेकNo Image is Available
एक्सप्लेनर्सNo Image is Available
फास्ट चेकNo Image is Available
अंतर्राष्ट्रीयNo Image is Available
वेब स्टोरीज़No Image is Available
राजनीतिNo Image is Available
वीडियोNo Image is Available
रोज़मर्रा

जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो क़ुर्बानी: कारगिल युद्ध के 22 साल

कारगिल की ऊँची पहाड़ियों पर भारतीय सेना के जवानों के शौर्य और पराक्रम का विजयी नजारा था ये युद्ध.

By - Devesh Mishra | 26 July 2021 7:23 PM IST

बाईस साल का समय बहुत ज़्यादा नहीं होता, इतना तो हरगिज़ नहीं कि एक जंग के ज़ख्मों को भूला जा सके. बाईस साल पहले आज ही के दिन भारतीय सूरमाओं ने कारगिल की पहाड़ियों पर विजय पताका लहराया था. 

उत्तर प्रदेश पॉपुलेशन कंट्रोल बिल के ड्राफ़्ट की पाँच महत्वपूर्ण बातें

सोचिये कि आपकी किसी से लड़ाई चल रही हो, दुश्मन छत पर बैठा है और छत में जाने के लिये एक सीढ़ी लगी है. आपको दुश्मन तक पहुंचने के लिए सीढ़ी का रास्ता लेना है और इस पूरे क्रम में दुश्मन लगातार आप पर नज़र रखे है, आपका रास्ता रोकने की कोशिश कर रहा है.

बिल्कुल यही स्थिति भारत पाकिस्तान के बीच 1999 में हुए कारगिल युद्ध की थी. इस युद्ध में छत पर पाकिस्तान बैठा था और सीढ़ियों के सहारे चढ़कर ऊपर भारत को जाना था. इस भीषण युद्ध की भौगोलिक स्थिति और सैनिकों की पोज़ीशन भारत के लिए बिल्कुल भी अनुकूल नहीं थी. कारगिल की ऊँची पहाड़ियों पर पाकिस्तान की तरफ़ से भारत के हिस्से में बड़ी संख्या में अवैध घुसपैठ हुई थी. इस घुसपैठ की सूचना शुरुआती समय में न तो भारतीय सेना के पास थी और न ही भारत की किसी भी ख़ुफ़िया एजेंसी के पास.

कारगिल युद्ध 3 मई 1999 से 26 जुलाई 1999 तक चला जिसमें भारत की विजय हुई. ये लड़ाई क़रीब 100 किलोमीटर के दायरे में लड़ी गई जहाँ क़रीब 1700 पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सीमा के क़रीब 8 या 9 किलोमीटर अंदर घुस आए. इस पूरे ऑपरेशन में भारत के 527 सैनिक शहीद हुए और 1363 जवान आहत हुए.

कैसे लगी घुसपैठ की भनक?

जम्मू कश्मीर में एक स्थानीय समुदाय है 'बकरवाल'. इस समुदाय के लोग हिमालय की ऊँची चोटियों में अपने जानवर चराने पहुँच जाते हैं. उनमे से कई जगहें ऐसी होती हैं जहाँ तक सेना के जवान भी नहीं जाते. ये लोग कई कई महीनों तक अपनी बकरियों और भेड़ों को लेकर हिमालय की ऊँची चोटियों में फैले रहते हैं. भारतीय सीमा में पाकिस्तानियों की मौजूदगी और उनकी सैन्य गतिविधियों की सबसे पहली खबर इन्ही बकरवाल लोगों ने भारतीय जवानों को दी थी.

सेना ने इस खबर की पुष्टि के लिये अपने हेलिकॉप्टर से मुआयना किया तो पाया कि कारगिल की पहाड़ियों पर भारतीय सीमा में पाकिस्तान क़ब्ज़ा जमाये हुए है. शुरुआत में न सिर्फ़ भारतीय सेना बल्कि भारत सरकार भी इस घुसपैठ को इतनी बड़ी साज़िश के तौर पर नहीं देख रही थी. इसका एक बड़ा कारण ये था कि कुछ दिन पहले ही भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान की यात्रा पर गये थे.

वहाँ लाहौर शिखर सम्मेलन में कश्मीर समेत तमाम ऐसे मुद्दों पर चर्चा हुई थी जो भारत-पाकिस्तान के बीच हमेशा विवाद का कारण रहे हैं. 

खैर, भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों को जब इस घुसपैठ भनक लगी तो उन्होंने पाया कि कारगिल की पहाड़ियों पर पाकिस्तान के सैनिकों की तादाद बहुत ज़्यादा है. अब तक ये स्पष्ट हो चुका था कि पाकिस्तान कोई बड़ा ऑपरेशन अंजाम देना चाहता था. लेकिन किसे पता था कि लगभग 60 दिनों तक चलने वाला ये युद्ध भारतीय सेना के पराक्रम और उनकी जिजीविषा के नये कीर्तिमान बनायेगा.

कारगिल युद्ध के जांबाज़ जिन्हे मिला वीरता का सर्वोच्च सम्मान

कैप्टन मनोज कुमार पांडे

कैप्टन मनोज कुमार पांडे का जन्म उत्तर प्रदेश के सीतापुर के रुधा गांव में 25 जून 1975 को हुआ था. पांडेय भारतीय सेना की गोरखा राइफ़ल्स बटालियन का हिस्सा थें. पहाड़ों पर तेज़ी से चढ़ना और घात लगाकर दुश्मन पर हमला करने में ग़ज़ब महारत हासिल थी उन्हें. सियाचिन से अपनी सेवा वो ख़त्म ही कर रहे थे कि उन्हें तत्काल कारगिल बुला लिया गया था. भारतीय सेना की कुकरथांग और ज़बूरटॉप चोटियों को उन्होंने अपनी सूझबूझ और पराक्रम से पाकिस्तानी सैनिकों से मुक्त करा लिया. इसके बाद उन्हें भारतीय सेना की सबसे महत्वपूर्ण पोस्ट खालूबर को ख़ाली कराने की ज़िम्मेदारी मिली.

ये काम अत्यंत कठिन था और पांडेय इस मिशन में काफ़ी ज़ख़्मी हो गये लेकिन दुश्मन के बंकर का नामोनिशान मिटाकर खालूबार टॉप पर तिरंगा लहरा दिया. मनोज पांडेय इस मिशन में बहुत ज़ख़्मी हो गये थे और 3 जुलाई 1999 को शहीद हो गए. इस अद्वितीय वीरता के लिए कैप्टन मनोज कुमार पांडे को मरणोपराँत भारत का सबसे बड़ा वीरता सम्मान परमवीर चक्र दिया गया. कैप्टन मनोज पांडेय को केन्द्र में रखकर साल 2003 में एक फ़िल्म भी बनी जिसका नाम था 'एलओसी कारगिल'.

योगेन्द्र सिंह यादव

ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव को कारगिल युद्ध में उनके अदम्य साहस और बहादुरी के लिये परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. योगेन्द्र सिंह को ये सम्मान सिर्फ़ 19 साल की उम्र में मिला था. उनके नाम सबसे कम उम्र में ये पुरस्कार पाने का रिकॉर्ड भी दर्ज़ है. युद्ध में वो बहुत ज़ख़्मी हो गये थे और बचने की उम्मीद बहुत कम थी लेकिन युद्ध के मैदानों में दुश्मन को धूल चटाने वाला ये सिपाही मौत को भी मात देकर लौट आया.

कैप्टन विक्रम बत्रा

मातृभूमि के लिये रणभूमि में लड़ते हुए 7 जुलाई 1999 को वीरगति प्राप्त करने वाले विक्रम बत्रा को भी मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने की ज़िम्मेदारी कैप्टन बत्रा की टुकड़ी को मिली थी. अपने सैनिकों के साथ अदम्य साहस का परिचय देते हुए कैप्टन बत्रा ने जब पाकिस्तानियों से चोटी मुक्त करा ली और रेडियो के ज़रिये कैप्टन ने कहा कि 'ये दिल माँगे मोर' तो पूरे देश में उनके जोश और जज़्बे का जादू फैल गया. कैप्टन बत्रा को उनके साथी 'कारगिल का शेर' और 'शेरशाह' उपनाम से बुलाते थे.

राइफ़लमैन संजय कुमार

संजय कुमार को कारगिल युद्ध में उनकी बहादुरी के लिये परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. हिमाचल प्रदेश के संजय कुमार ने अपनी वीरता से कारगिल युद्ध के दौरान मशीनगन का ऐसा करतब दिखाया था कि दुश्मन को नेस्तनाबूद करके फ़्लैट टॉप पर भारतीय सेना ने क़ब्ज़ा जमा लिया.

कारगिल युद्ध आज भी भारतीय सेना के शौर्य और बलिदान का प्रतीक है. हर साल 26 जुलाई को भारतीय सेना के इस पराक्रम को विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है.

पढ़िए आज के दिन किसने कैसे दी शहीदों को श्रद्धांजलि.






Tags:

Related Stories