बॉम्बे हाईकोर्ट ने दो साल पुराने कथित आत्महत्या मामले में रिपब्लिक टीवी के एडिटर इन चीफ़ अर्नब गोस्वामी की गिरफ़्तारी के मामले में अंतरिम ज़मानत देने से इनकार कर दिया है। डिवीजन बेंच ने पाया कि मामले में हाईकोर्ट द्वारा हस्तक्षेप करने का कोई असाधारण कारण नहीं बनता और कानून के प्रावधानों के तहत अर्नब के पास "वैकल्पिक उपाय" उपलब्ध है।
हाईकोर्ट की खंडपीठ ने कहा कि "वर्तमान मामले के तथ्यों में, आवेदक की रिहाई के लिए कोई मामला नहीं बनता है- याचिकाकर्ता को अतिरिक्त सामान्य अधिकार क्षेत्र के तहत।"
हाईकोर्ट के ऑर्डर में कहा गया कि "हमारी राय में याचिकाकर्ता के पास नियमित ज़मानत के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 के तहत एक वैकल्पिक और प्रभावकारी उपाय है। आवेदनों की सुनवाई के समापन के समय, हमने यह स्पष्ट कर दिया था कि यदि याचिकाकर्ता, चाहे तो उसे सलाह दी जाती है कि संबंधित अदालत के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 के तहत नियमित ज़मानत के लिए आवेदन करें, फिर, उस मामले में, हमने संबंधित अदालत को निर्देश दिया है कि वह उक्त आवेदन पर उसके दाख़िल होने के चार दिनों के भीतर फ़ैसला करें। '
महाराष्ट्र पुलिस ने 3 नवंबर को इंटीरियर डिज़ाइनर अन्वय नाइक की आत्महत्या के आरोप में गोस्वामी को मुंबई में उनके आवास से गिरफ़्तार किया था। अलीबाग अदालत ने 18 नवंबर तक गोस्वामी को न्यायिक हिरासत में भेज दिया था।
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अर्नब गोस्वामी ने हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की थी जिसमें उनकी गिरफ़्तारी को चैलेंज करते हुए इसे अवैध माना गया था। अर्नब ने आगे आरोप लगाया कि "राज्य सरकार के सोशल मीडिया हैंडल द्वारा अन्वय नाइक की पत्नी द्वारा जारी किए गए वीडियो के आधार पर महाराष्ट्र में राजनीतिक प्रतिशोध और पुलिस कमिश्नर की व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण "उनके ख़िलाफ़ जांच फिर से शुरू की गई है।"
हालांकि, हाईकोर्ट ने अंतरिम राहत के सीमित बिंदु पर दलीलें सुनीं और मामले को 10 दिसंबर को सुनवाई के लिए बढ़ा दिया। इससे पहले, अर्नब गोस्वामी ने अलीबाग कोर्ट के समक्ष ज़मानत के लिए याचिका दायर की थी। हाईकोर्ट के निर्देशों के अनुसार, ट्रायल कोर्ट केजज को चार दिनों के भीतर मामले का फ़ैसला करना होगा।
पीड़िता के अधिकार अभियुक्त के अधिकार जितना महत्वपूर्ण है: हाईकोर्ट
अन्वय नाइक की बेटी अद्न्या की याचिका पर महाराष्ट्र पुलिस द्वारा दायर " ए समरी" रिपोर्ट की फिर से जांच की मांग पर, हाईकोर्ट ने कहा कि "तथ्य यह है कि मजिस्ट्रेट ने पहले मुखबिर को नोटिस और अवसर नहीं दिया कि वह रिपोर्ट स्वीकार करने से पहले एक विरोध याचिका दायर करे, यह मामले की जड़ तक जाता है"।
"इसलिए, शिकायतकर्ता द्वारा राज्य सरकार को उसकी शिकायत के निवारण के लिए लगातार प्रोत्साहित किया क्योंकि उसके दो परिवार के सदस्यों ने आत्महत्या की थी और पहले की पृष्ठभूमि में, संबंधित जांच अधिकारी, मजिस्ट्रेट को सूचित करने के बाद सम्बंधित जांच अधिकारी आगे की जांच शुरू करता है। हाईकोर्ट ने कहा कि महज़ कल्पना के आधार पर जांच को अनियमित या अवैध नहीं कहा जा सकता। "पीड़िता के अधिकार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितने कि आरोपी के अधिकार।" हाईकोर्ट ने गोस्वामी के इस तर्क को खारिज़ कर दिया जिसमें कहा गया था कि आगे की जांच नहीं हो सकती है।
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पुलिस द्वारा आगे की जांच अवैध नहीं: हाईकोर्ट
"केवल इसलिए कि मजिस्ट्रेट ने जांच अधिकारी द्वारा प्रस्तुत "ए" समरी को स्वीकार कर लिया है, इसका मतलब यह नहीं होगा और संबंधित जांच अधिकारी को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 (8) के प्रावधानों को लागू करने के लिए न्यायिक मजिस्ट्रेट को सूचित करना होगा।" हाईकोर्ट ने राज्य की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अमित देसाई की प्रस्तुतियाँ स्वीकार करते हुए कहा।
पिछले फ़ैसलों को देखते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि क़ानून आगे की जांच के लिए मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य नहीं करता है। इसके अलावा, पिछले फ़ैसले कहते हैं कि "चार्जशीट दाखिल करने के बाद भी आगे की जांच करना, पुलिस का वैधानिक अधिकार है"।
56 पेज के आदेश में लिखा गया है, "आगे की जांच और फिर से जांच के बीच एक अंतर भी मौजूद है। यह देखा गया है कि पूर्व अनुमति के बिना दुबारा जांच ज़रूर मना है, लेकिन आगे की जांच नहीं।" "हम पाते हैं कि उक्त जाँच को अंजाम देने से पहले, मजिस्ट्रेट को आगे की जाँच के बारे में सूचित किया गया था। इसके बाद, यहाँ तक कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट से अनुमति प्राप्त करने के बाद दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत भी बयान दर्ज किए जाते हैं। हमारी राय में, मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना आगे की जांच को अवैध नहीं कहा जा सकता है।"