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अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आदिवासियों के पहले विद्रोह की विरासत 'हूल दिवस'

हूल दिवस 30 जून को क्रांति दिवस के रूप में मनाया जाता है. इसे संथाल विद्रोह भी कहा जाता है. यह अंग्रेज़ों के खिलाफ़ आज़ादी की पहली लड़ाई थी.

By - Devesh Mishra |
Published -  30 Jun 2021 2:16 PM
  • अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आदिवासियों के पहले विद्रोह की विरासत हूल दिवस

    30 जून झारखंड (Jharkhand) राज्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण तारीख है. आज ही के दिन वर्ष 1855 में चार भाईयों- सिद्धो,कान्हू, चांद,भैरव और उनकी दो बहनें - फुलो एवं झानो - ने संघर्ष की एक ऐसी कहानी लिखी थी जो इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए अमर हो गई.

    संथाली भाषा में हूल का मतलब विद्रोह होता है. 30 जून 1855 को सिद्धो,कान्हू, चांद, भैरव, फुलो और झानो के नेतृत्व में लगभग 30 हजार संथाल जनजाति के स्त्री-पुरुषों ने अंग्रेजी शासन, ज़मींदारों, और महाजनों के शोषण-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ विद्रोह का बिगुल फूंका था. यह संथाल विद्रोह एशिया महादेश का सबसे बड़ा जन-विद्रोह और भारत की पहली जन क्रांति थी.

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    आदिवासी भाई सिदो-कान्‍हू की अगुआई में संथालों ने मालगुज़ारी नहीं देने के साथ ही 'अंग्रेज़ हमारी माटी छोड़ो' का ऐलान किया. इससे घबरा कर अंग्रेज़ों ने विद्रोहियों का दमन प्रारंभ किया.

    क्या थी विद्रोह की वजह?

    बिहार के मुंगेर में हिंदी के प्रोफ़ेसर राजीव राही ने आदिवासी विद्रोह और उनकी सामाजिक राजनीति पर कई कवितायें और लेख लिखे हैं. बूम से बात करते हुए राजीव ने बताया कि अंग्रेजों ने आदिवासी इलाक़ों में ग़ैर आदिवासी लोगों को हिंदी भाषी क्षेत्रो और बंगाल के कई इलाक़ों से लाकर बसाना शुरू किया था ताकि आदिवासियों से संवाद किया जा सके. इन्हें दिकू कहा जाता है.

    "दिकू लोगों ने अंग्रेज़ों की मदद से आदिवासी इलाक़ों में संसाधनों पर क़ब्ज़ा किया और ज़मींदार बन बैठे जो मनमानी मालगुज़ारी वसूल कर अंग्रेज़ों को देते थे," राजीव ने बूम को बताया. राजीव आगे कहते हैं: हूल विद्रोह मूलतः दिकू लोगों को अपनी ज़मीनों से बाहर निकालने की एक कोशिश थी जो बाद में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह में बदल गया.

    प्रोफ़ेसर राजीव ने बूम को बताया कि अंग्रेज़ों ने आदिवासी इलाक़ों में रेल पटरियाँ बिछाने का काम भी उन दिनों शुरू किया था.

    इस काम के लिये आदिवासियों से अमानवीय श्रम करवाया जाता था,जंगल काटे जाते थे और प्राकृतिक संसाधनों का भयंकर दोहन होता था. आदिवासियों के ग़ुस्से और विद्रोह का एक कारण ये भी था कि बाहर के लोग आकर उनके साथ अमानवीय व्यवहार कर रहे थे और उनके साधनों को लूट रहे थे.

    प्रोफ़ेसर डॉ. राजीव राही

    अंग्रेज़ों ने किया क्रूर दमन

    विद्रोहियों को दबाने के लिए अंग्रेज़ी हुकूमत ने क्रूरता की हदें पार कर दीं. बहराइच में चांद और भैरव आन्दोलन का नेतृत्व करते हुए शहीद हो गये, तो दूसरी ओर सिदो और कान्हू को पकड़ कर भोगनाडीह गांव में ही पेड़ पर लटका कर 26 जुलाई1855 को फांसी दे दी गयी. इन्हीं शहीदों की याद में हर साल 30 जून को हूल दिवस मनाया जाता है. इतिहास के पन्नों में बताया गया है कि इस महान क्रांति में लगभग 20,000 लोगों को मौत के घाट उतारा गया था.

    बूम से बात करते हुए अंत में प्रोफ़ेसर कहते हैं कि जिस तरह पूरी दुनिया का इतिहास यूरोप सेंट्रिक है उसी तरह भारत का इतिहास भी उत्तर भारत के हिंदी भाषी क्षेत्रों तक ही सीमित है. "हमारे इतिहास में इन आंदोलनों को कभी भी उचित स्थान नहीं मिला.आदिवासियों के प्रति हमेशा एक उपेक्षा का भाव रहा है,"

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