नहीं रहे फ़ादर स्टेन स्वामी, भीमा कोरेगाँव मामले में लगा था यूएपीए
84 साल के स्टेन स्वामी को बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश पर 30 मई को मुंबई के अस्पताल में भर्ती कराया गया था.
ट्राइबल एक्टिविस्ट (Tribal activist) फ़ादर स्टेन स्वामी (Stan Swamy) का जुलाई 5, 2021 को निधन हो गया. स्वामी को 8 अक्टूबर 2020 को रांची स्थित उनके घर से गिरफ़्तार किया गया था.
स्वामी का नाम उन आठ लोगों में शामिल है जिनपर भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा को कथित तौर पर भड़काने का आरोप हैं. लंबे समय से स्वामी महाराष्ट्र पुलिस और एनआइए (NIA) के रडार पर थे. वर्ष 2018 में पुणे की पुलिस ने भी उनसे रांची में पूछताछ की थी. वर्ष 2018 से अब तक कई बार एनआइए (NIA) ने भी उनसे पूछताछ की है. एनआइए पहले भी उनसे 15 घंटे तक पूछताछ कर चुकी है. 27 जुलाई से 30 जुलाई और 6 अगस्त को कुल मिलाकर 15 घंटे तक जांच एजेंसी ने उनसे पूछताछ की.आठ महीनों से भी ज्यादा वक्त से वह मुंबई की तलोजा जेल में बंद थे.
फ़ादर स्टेन स्वामी पार्किंसन्स बीमारी से जूझ रहे थे. कोरोना संक्रमण की वजह से उनकी सेहत पर बुरा असर पड़ा. उन्हें दोनों कानों में सुनने में भी तकलीफ़ थी और कई बार जेल में गिर भी चुके थे जिससे उन्हें गंभीर चोटें आई थीं. स्टेन स्वामी को मुंबई के होली फ़ैमिली अस्पताल में भर्ती कराया गया था. वे 4 जुलाई से ही वेंटिलेटर पर थे और 5 जुलाई को उनका निधन हो गया.
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बॉम्बे हाईकर्ट में फादर स्टेन स्वामी की जमानत याचिका पर भी सुनवाई चल रही थी. सेहत के आधार पर उन्होंने जमानत की याचिका दायर की थी जिसे विशेष अदालत ने खारिज कर दिया था इस मामले की सुनवाई के लिए कोर्ट ने 6 जुलाई की तारीख तय की थी.
फादर स्टेन स्वामी भारत के सबसे बुज़ुर्ग व्यक्ति थे जिन पर सरकार ने 84 साल के उम्र में आतंकवाद का आरोप लगाया. एनआईए ने स्वामी पर 2018 के भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में शामिल होने और नक्सलियों के साथ संबंध होने के आरोप लगाए हैं. साथ ही उन पर ग़ैर क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) की धाराएँ भी लगाईं.
कौन थे फादर स्टेन स्वामी?
तमिल नाडु के त्रिची में अप्रैल 26, 1937 में जन्मे स्टेन स्वामी के पिता किसान थे और उनकी माँ गृहणी थीं. मूल रूप से केरल के रहने वाले स्वामी झारखंड के सामाजिक कार्यकर्ता थे. कई वर्षों तक उन्होंने झारखंड राज्य के आदिवासी और अन्य वंचित समूहों के लिए काम किया. समाजशास्त्र से एमए करने के बाद उन्होंने बेंगलुरू स्थित इंडियन सोशल इंस्टिट्यूट में भी काम किया. बतौर मानवाधिकार कार्यकर्ता झारखंड में विस्थापन विरोधी जनविकास आंदोलन की स्थापना की. ये संगठन आदिवासियों और दलितों के अधिकारों की लड़ाई लड़ता है. स्टेन स्वामी रांची के नामकुम क्षेत्र में आदिवासी बच्चों के लिए स्कूल और टेक्निकल ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट भी चलाते थे.
आदिवासियों के बीच किया लंबा संघर्ष
उन्होंने एक दशक से अधिक समय तक बेंगलुरु में हाशिए पर मौजूद समुदायों के नेताओं के प्रशिक्षण के लिए एक स्कूल चलाया. इनके बाद वो लगातार झारखंड के आदिवासियों के बीच जल जंगल ज़मीन की लड़ाई को मज़बूत करते रहे. स्वामी ने आदिवासियों के बीच जागरूकता फैलाने और उनके मूलभूत अधिकारों की लड़ाई बहुत ज़मीनी स्तर पर की.
उन्होंने लंबे समय तक जेल में बंद क़ैदियों के मानवाधिकारों की वकालत की तथा अवैध तरीक़े से जेलों में बंद लोग, जिनकी न कोई सुनवाई होती है और न ही चार्जशीट दायर होती है, उन पर एक लंबा शोध किया. उन्होंने अपने इस संघर्ष को एक किताब की शक्ल दी जिसे 2010 में प्रकाशित किया गया था.
फ़ादर स्टेन स्वामी पहले कैंसर से भी पीड़ित थे. उनकी सर्जरी भी हुई थी लेकिन आदिवासियों की मदद और उनके संघर्ष में शामिल होने का कोई भी मौक़ा वो कभी नहीं छोड़ते थे.